Скачайте и установите необходимые шрифты, чтобы санскрит отображался во всей его красе Прочтите Транслитерация (2) (русский), чтобы полностью понять систему транслитерации |
Śivamahimnaḥ stotram (Шива-махимна-стотрам) - Devanāgarī
Гимн, восхваляющий величие Шивы - Только Devanāgarī
Вступление
Автором этого известного писания является Пушпаданта, известный Гандхарва (небесный музыкант), который написал этот гимн, чтобы усмирить гнев Шивы. Почему Шива был в гневе? Потому что Пушпаданта, пытаясь украсть цветы из царского сада, нечаянно наступил на особый вид травы, священный для Шивы. На самом деле это длинная история. Тем не менее, данный гимн важен тем, что описывает ряд событий, имеющих отношение к Шиве. Он также полон поклонения Шиве. Именно поэтому он очень рекомендуется для Свадхьяйи (изучения и пересказа священных писаний, согласно Патанджали).
Заметьте, что «как бы» существуют два типа Шивы:
- Ведический Шива, который упоминается в Ведах как Рудра. Тем не менее, в литературе, основанной на Ведах (Пуранах, Итихасе и т.д.) появляется имя «Шива». Этот Шива – бог из прославленной триады (Брахма – Создатель, Вишну – Поддерживающий и Шива – Разрушитель). Он является «личностным» Шивой и по большей части мифологическим персонажем.
- Шива в Трике тождествен Высшему Я. Трика (Недвойственный Кашмирский Шиваизм) гласит, что Шива – это Дух, обитающий во всём и всех. Он «бесформенный и безличный» Шива, произошедший от длительного преобразования, которое началось с Ведического Шивы.
Если вы не понимаете в чём разница, вы никогда не поймете, почему я говорю, что «Вы есть Шива», но не «разрушающий бог вышеупомянутой триады» и т.д. Ведический Шива личностный, в то время как Шива в Трике – безличный и универсальный. Как вы уже заметили, концепция Шивы в системе Трики гораздо более всеобъемлющая и включает в себя всё (в том числе и Ведического Шиву). Обычно я говорю о Шиве в Трике и не о Ведическом Шиве, ясно? Хорошо. Конечно же, существуют не два Шивы, а всего лишь две концепции его, но вы должны понимать обе для того, чтобы не допускать ошибок. Другими словами, когда я говорю о Шиве, как о йоге, живущем в пещере и т.д., я имею в виду «Ведического Шиву». Но когда я говорю о Шиве, как о вечном Свидетеле, живущем во всех и т.д., я говорю о «Шиве в Трике». В любом случае, слова ограничивают, как вы уже знаете, но я надеюсь, что вы поняли суть моего объяснения. А теперь – гимн.
Эта версия написана только на Devanāgarī (Девангари), то есть весь текст можно прочитать в таком виде, в каком он был написан автором. Перевод и транслитерация отсутствуют.
Спасибо Ирине Vallabhā за перевод этого текста с английского/испанского на русский язык.
Писание в оригинале
शिवमहिम्नः स्तोत्रम्
गजाननं भूतगणाधिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम्॥
श्रीपुष्पदन्त उवाच
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।
अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन् ममाप्येषः स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः॥१॥
अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मानसयोरतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः॥२॥
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतस्तव ब्रह्मन्किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्।
मम त्वेनां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता॥३॥
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्त्रयीवस्तु व्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः॥४॥
किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः॥५॥
अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतामधिष्टातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।
अनीशो वा कुर्याद्भुवनजनने कः परिकरो यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे॥६॥
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥७॥
Строфы 8 - 14
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भ्रप्रणिहितां न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति॥८॥
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं परो ध्रौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव स्तुवञ्जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता॥९॥
तवैश्वर्यं यत्नाद्यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः परिच्छेत्तुं यातावनलमनलस्कन्धवपुषः।
ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत्स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति॥१०॥
अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं दशास्यो यद्बाहूनभृत रणकण्डूपरवशान्।
शिरःपद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबलेः स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्॥११॥
अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनं बलात्कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलिताङ्गुष्ठशिरसि प्रतिष्ठा त्वय्यासीद्ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः॥१२॥
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीमधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।
न तच्चित्रं तस्मिन्वरिवसितरि त्वच्चरणयोर्न कस्या उन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः॥१३॥
अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपाविधेयस्यासीद्यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवनभयभङ्गव्यसनिनः॥१४॥
Строфы 15 - 21
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः॥१५॥
मही पादाघाताद्व्रजति सहसा संशयपदं पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम्।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता॥१६॥
वियद्व्यापी तारागणगुणितफेनोद्गमरुचिः प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमित्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः॥१७॥
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथचरणपाणिः शर इति।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधिर्विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः॥१८॥
हरिस्ते साहस्रं कमलबलिमाधाय पदयोर्यदेकोने तस्मिन्निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषा त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्॥१९॥
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः॥२०॥
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतामृषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफलविधानव्यसनिनो ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः॥२१॥
Строфы 22 - 28
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः॥२२॥
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत देहार्धघटनादवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा यवतयः॥२३॥
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराश्चिताभस्मालेपः स्रगपि नृकरोटीपरिकरः।
अमाङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि॥२४॥
मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायात्तमरुतः प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमदसलिलोत्सङ्गितदृशः।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्ज्यामृतमये दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्॥२५॥
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहस्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता विभ्रतु गिरं न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि॥२६॥
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरानकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृति।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्॥२७॥
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहांस्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्।
अमुष्मिन्प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि प्रियायास्मै धाम्ने प्रविहितनमस्योऽस्मि भवते॥२८॥
Строфы 29 - 35
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो नमः सर्वस्मै ते तदिदमितिसर्वाय च नमः॥२९॥
बहलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः॥३०॥
कृशपरिणति चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं क्व च तव गुणसीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोहारम्॥३१॥
असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुपात्रे सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥३२॥
असुरसुरमुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दुमौलेर्ग्रथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।
सकलगणवरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानो रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार॥३३॥
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान् यः।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र प्रचुरतरधनायुःपुत्रवान्कीर्तिमांश्च॥३४॥
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं योगयागादिकाः क्रियाः।
महिम्नः स्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥३५॥
Строфы 36 - 42
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्वभाषितम्।
अनौपम्यं मनोहारि शिवमीश्वरवर्णनम्॥३६॥
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्॥३७॥
कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः शिशुशशधरमौलेर्देवदेवस्य दासः।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ठ एवास्य रोषात्स्तवनमिदमकार्षीद्दिव्यदिव्यं महिम्नः॥३८॥
सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुं पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्यचेताः।
व्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्॥३९॥
श्रीपुष्पदन्तमुखपङ्कजनिर्गतेन स्तोत्रेण किल्बिषहरेण हरप्रियेण।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः॥४०॥
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्करपादयोः।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः॥४१॥
यदक्षरं पदं भ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत्।
तत्सर्वं क्षम्यतां देव प्रसीद परमेश्वर॥४२॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
Дополнительная информация
Этот документ был составлен Габриэлем Pradīpaka, одним из двух основателей этого сайта, духовным гуру, экспертом в санскрите и философии Трика.
Для получения дополнительной информации о санскрите, йоге и философии, или если вы просто хотите оставить комментарий, задать вопрос или нашли ошибку, напишите нам: Это наша электронная почта.